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गुरुवार, जून 17, 2021

रूदन का कहर के बाद भी प्रकृति का गोद बना घर गांव व शहर : डॉ. ओम प्रकाश

डॉ ओम प्रकाश

प्रकृति, संस्कृति, सभ्यता के बिना जीवन जीवंत नहीं और न ही कोई अस्तित्व है। मृत्यु के बाद भी जीवन! LIC Policy के चलतें नहीं कि जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी। ऐसा हमारी प्रकृती, संस्कृति व सभ्यता के कारण ही है। हम किसी से कुछ छीनते हैं, तोड़ते हैं, बिगाड़ते हैं या कुछ भी अनैतिक करते हैं अर्थात कहीं न कहीं हमारे अंदर व आस-पास के वातावरण में प्रकृति, संस्कृति व सभ्यता का नाश हुआ और विकृति उत्पन्न हुई।


छीनना विकृति है, मांगना प्रकृति है, बांटना संस्कृति है और संवेदना सभ्यता है। 

हम कभी न भूलें की इन तीनों के बिना न ही जीवन है, न ही मरण है, न ही नाते रिश्तें है, न ही मित्रता है, न ही मान-सम्मान है। इन तीनों का होना ही विकास है और इन तीनों के परे विकृति का होना सर्वनाश है। वर्तमान परिस्थिति में देखिये! क्या जीना? क्या मरना? लेकिन फिल्म मेरा नाम जोकर का गाना याद कीजीये जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ ... सबकुछ हमारे पास उपलब्ध है। स्वर्ग जैसा सुख व नरक जैसा दु:ख। झांकने की आवश्यकता है। 


बसुंधरा परिवार हमारा... सुनते थे, कोरोना में देखने को मिल गया। सेवा-भाव से ओत-प्रोत सभी दौड़-दौड़ कर अनथक प्रयास कर रहे हैं। चाहे वह सरकारी महकमा हो, गैर सरकारी संगठन हो या सेवा भावी भावना हो। यह कहीं न कहीं हमारी सभ्यता,संस्कृति का ही देन है। 

पुत्र पिता को नहीं छू रहा तो अन्य सेवक समाज जिसे हम डोम कहते हैं। आज वह सेवा भाव से पार्थिव शरीर को पंचत्व में विलीन करने में रत हैं। कहते हैं पुत्र के बिना मुखाग्नी कैसे? और डोम के बिना मोक्ष कैसे? 


हमें याद रखना होगा हम दिन-रात खुद जीने का सोचते हैं, तो हम विकृत मानसिकता में जी रहे हैं। यदि आप कुछ भी नहीं कर सकते तो बस इतना ही करिये जिनके ऊपर विपत्ति का पहाड़ गिर गया है उनको ढाढस दीजीये। मत भूलिये की ईश्वर है ही नहीं। हम सबों की करूणामयी वंदन जरूर गुंजायमान होगा। 

विचार स्वयं करना होगा। किसी का बलात्कार कर देना, किसी की हत्या कर देना, किसी से धन लूट लेना, किसी से धोखाधड़ी करना, किसी के सुखमय जीवन में खलल डालना, सरकारी नौकरी पाते ही भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाना, पैसों पर ही रिश्ते कायम रखना, यह सब विकृति हम सबों में आ ही गया था। जिसके कारण संस्कृति का बात करना, प्रकृति संरक्षण की बात करना, सभ्यता के संवर्धन की बात करना पागलपंती हो गया था। ईतना जरूर विश्वास रखना होगा अंधेरा छटेगा और सरज उगेगा। सुबह उठकर उन पपीहों का संगीत सुनिये। पपीहा बोले डारन पे सूरज छाई है सारे गगन में...


लेखक राँची वीमेंस काॅलेज, राँची के बी. एड. विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं।

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