(डाॅ. ओम प्रकाश जी के कलम से........) : साहित्य समाज का दर्पण होता है समाज में सोना,सज्जन और साधु जन रहते हैं। इसके विपरीत भी लोग रहते हैं। जीवन में संघर्ष का होना जीवन का जीवंत होने का परिचायक है। भक्ति काल में जन्मे संत कबीर जिन्होंने हर छोटी-बड़ी जीवन की पहेलियों को अपने शाब्दिक मंत्रों से पिरोया। जहां विद्वता निरर्थक हो जाती है वहीं से साधुता प्रारंभ हो जाती है। हिंदी साहित्य के महिमामंडित व्यक्तित्व संत कबीर दास को कौन नहीं जानता? समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने का संकल्प ही गुरु रामानंद के शिष्यों में कबीर को श्रेष्ठ शिष्य बनाया।
"मसि कागद छुओ नहीं कलम गही नहिं हाथ"
अर्थात, गुरुकुल,विद्यालय का मुंह भी नहीं देखने वाला कबीर आज हम सबों के जीवन का आदर्श हैं। अमरत्व कौन पाता है? जिसके जाने के बाद भी उसके कृतित्व को सुना,समझा व पढ़ा जाए। संत कबीर की वाणी, भजन आज भी हर घरों में गुंजायमान है। गीता में भी कहा गया है,
"परेषां उपकार्थम् यो जीवती सः जीवीतः"
अर्थात, जो दूसरों के उपकार के लिए जीता है वही जीवित है। संत कबीर भी आज जीवित हैं क्योंकि उन्होंने पाखंड,अंधविश्वास इत्यादि कुरीतियों का जोरदार विरोध किया।अपने आप को जुलाहा के रूप में प्रस्तुत करने वाले,
"जाति जुलाहा नाम कबीरा , बनी-बनी फिरो उदासी"
परमात्मा पर अटूट विश्वास रखने वाले संत कबीर दास का जीवन सामाजिक कल्याण में ही बीता। मानव जीवन को बहुमूल्य जीवन, जीवन के संघर्ष की अक्षरश: व्याख्या संत कबीर दास ने की.
सोना सज्जन साधु जन रूठे रूठे सौ बार...
जैसा की वे एक जुलाहे के परिवार से थे तो शुरू से परिवार की विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उन्हें मिल गयी थी, परन्तु अपनी धार्मिक शिक्षा उन्होंने स्वामी रामानंद जी से ली।
एक बार की बात है जब कबीर दास जी घाट पर सीढ़ियों पर लेटे हुए थे और वहां से स्वामी रामानंद गुजरे और उन्होंने अनजाने में अपने पैर कबीर दास जी पर रख दीये और ऐसा करने के बाद वे राम-राम कहने लगे और उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और इस तरह वे कबीर दास जी को अपना शिष्य बनाने पर मजबूर हो गए। और इस प्रकार उन्हें रामानंद जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। वे स्वामी रामानंद के सबसे चहेते शिष्य थे और वे जो भी बताते उसे तुरंत कंठस्थ कर लेते और उनकी बातों का सदैव अपने जीवन में अमल करते।
कबीर का केवल जन्म ही नहीं अपितु मृत्यु भी बहुत बड़ी रहस्यमय तरीके से हुई। जैसा की कहा जाता है की काशी में मृत्यु होने पर सीधा मोक्ष की प्राप्ति होती है परन्तु कबीर दास जी ने इस कथन को असत्य ठहराते हुए, मृत्यु के समय मगहर (काशी से बहार का क्षेत्र) चले गए और वही उनकी मृत्यु हुई।
"सूरज चन्द्र का एक ही उजियारा, सब यहि पसरा ब्रह्म पसारा।
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।"
कबीर दास जी ने अपना पूरा जीवन साधुओं और फकीरों के साथ समाज के उद्धार हेतु गुजार दिया। और वे निराकार ब्रह्म के उपासक थे और मूर्ति पूजन का खंडन करते थे, वे जन्म से हिन्दू थे और उनका पालन-पोषण एक मुस्लिम परिवार में हुआ था परन्तु वे दोनों धर्मों को नहीं मानते थे,
"हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मरे, मरम न जाना कोई।"
उनका मानना यह था की सब जाती, धर्म एक है और हम सब के अन्दर खुदा या भगवन का वास है, इस लिये स्वयं के विचार शुद्ध रखो यही सबसे बड़ी भक्ति है।
उनका कहना था की दुनिया में सत्य से बढ़ कर कुछ नहीं होता और यही सबसे बड़ा तप है जिसे कोई झुटला नहीं सकता।
"सत बराबर तप नहीं, झूठ बराबर नहीं पाप,
ताके हृदय साँच हैं, जाके हृदय आप।"
उनके अनुसार भगवन व्रत और उपवास से प्रसन्न नहीं होते क्यों की क्या फायदा ऐसे व्रत का जिसके करने के बाद भी आप झूठ बोलते हों, जीव हत्या करते हों। उन्होंने सभी धर्मों के इस विधान का विरोध किया;
"दिन को रोजा रहत है, राज हनत हो गया,
मेहि खून, वह वंदगी, क्योंकर खुशी खुदाय।"
वे बेहद ज्ञानी थे और स्कूली शिक्षा न प्राप्त करते हुए भी अवधि, ब्रज, और भोजपुरी व हिंदी जैसी भाषाओं पर इनकी सामान पकड़ थी। इन सब के साथ-साथ राजस्थानी, हरयाणवी, खड़ी बोली जैसी भाषाओं में महारथी थे। उनकी रचनाओं में सभी भाषाओं की झांकी मिल जाती है इस लिये इनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ व ‘खिचड़ी’ कही जाती है।
ऐसा माना जाता है की सन् 1398 ई में कबीर दास जी का जन्म काशी के लहरतारा नामक क्षेत्र में हुआ था। कबीर दास जी हमारे भारतीय इतिहास के एक महान कवि थे, जिन्होंने भक्ति काल में जन्म लिया और ऐसी अद्भुत रचनाएँ की, कि वे अमर हो गए। इन्होंने हिन्दू माता के गर्भ से जन्म लिया और एक मुस्लिम अभिभावकों द्वारा इनका पालन-पोषण किया गया। दोनों धर्मों से जुड़े होने के बावजूद उन्होंने किसी धर्म को वरीयता नहीं दी और निर्गुण ब्रह्म के उपासक बन गए। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव मूल्यों की रक्षा और मानव सेवा में व्यतीत कर दी।
इनका जीवन शुरू से ही संघर्षपूर्ण रहा है, जन्म किसी ब्राह्मण कन्या के उदर से लिया और उसने लोक-लाज के डर से इन्हें एक तालाब के पास छोड़ दिया। जहाँ से गुजर रहे एक जुलाहे मुस्लिम दंपति ने टोकरी में इन्हें देखा और इन्हें अपना लिया। और अपने पुत्र की तरह इनका पालन-पोषण किया।
इन्होंने बहुत अधिक शिक्षा नहीं प्राप्त की, परन्तु शुरू से ही साधु-संतों के संगत में रहे और इनकी सोच भी बेहद अलग थी। वे शुरू से हमारे समाज में प्रचलित पाखंडों, कुरीतियों, अंधविश्वास, धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचारों का खंडन और विरोध करते थे, और शायद यही वजह है की इन्होंने निराकार ब्रह्म की उपासना की। इनपर स्वामी रामानंद जी का बेहद प्रभाव था।
इतिहास गवाह है, की जब-जब किसी ने समाज में सुधार लाने की कोशिश की है तो उसे समाज दरकिनार कर देती है और केवल उन्हीं नामों को इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुए हैं जो समाज से बिना डरे अपने इरादों में अडिग रहे। कबीर दास जी के भजन और दोहे आज भी घर-घर में बजाये जाते हैं और यह प्रदर्शित करता है की वे अपने आप में एक बहुत बड़े महात्मा थे।
लेखक : बी.एड. विभाग, राँची वीमेंस काॅलेज, राँची में सहायक प्राध्यापक हैं।